इमाम हुसैन (अ.स) की शहादत में हज़रत उमर का किरदार

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हज़रत इमाम हुसैन (अ) की शहादत में दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर के किरदार का अंदाज़ा हमें इन बातों से होता है कि कितनी हैरत की बात है कि हज़रत उमर जो अपने गवर्नरों से बहुत ज़ियादा सख़्ती से पेश आते थे उन्होंने मुआविया की साफ़ ग़लतियों से आँखे चुराई और उन सब बातों को देखते हुए कि मुआविया ने बादशाहत क़ायम कर ली है और हुकूमते इस्लामी के शाम के बड़े इलाक़े में फ़ित्ना व फ़साद बरपा कर रखा है उमर ने कभी भी उस की इस्लाह के लिए एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा, यह कितने ताज्जुब की बात है।

 

हज़रत उमर उम्माल और वालीयों (गवर्नरों) से हिसाब लेने में इतने सख़्त थे कि ख़ालिद इब्ने वलीद को बैतुलमाल में दस्तदराज़ी के जुर्म में बरख़ास्त कर दिया था। (इब्ने अबील हदीद मोतज़ली, शहरे नहजुल बलाग़ा, जिल्द 1, पेज 180)

 

मिस्र के गवर्नर मोहम्मद बिन मुस्लिमा अंसारी को अम्रे आस के पास हिसाब व किताब के लिए भेजा और मुख़ालेफ़त की सूरत में उसके सारे माल की कुर्की (ज़ब्त) कर लिया। मिस्र में ख़लीफ़ा के नुमाइंदे ने खाने को हाथ लगाए बग़ैर उसके आधे माल की कुर्की (ज़ब्त) कर लिया और मदीना लेकर चला आया।(इब्ने अबील हदीद मोतज़ली, शरहे नहजुल बलाग़ा, जिल्द 1, पेज 175)

 

जब अबू हुरैरा ने मुसलमानों के बैतुलमाल से ग़लत तरीक़े से ख़यानत की तो उसके जमा किए हुए माल व दौलत को उमर ने बैतुलमाल में वापस जमा करा लिया और विरोध करने पर उस की पुश्त पर कोड़े बरसाए और गुस्से में उस से कहा कि तेरी माँ अमीमा ने तुझे सिर्फ़ ख़र्च करने के लिए पैदा किया है। (अक़्दुल फ़रीद, जिल्द 2, पेज 14)

 

हज़रत उमर की सीरत व रफ़्तार यह थी कि हमेशा अपने गवर्नरों के तमाम माल पर नज़र रखते थे और जब किसी को उसके मन्सब से बरख़ास्त करते थे तो उसका सारा माल ज़ब्त कर लेते थे। (शरहे नहजुल बलाग़ा, इब्ने अबील हदीद मोतज़ली, जिल्द 1, पेज 174)

 

लेकिन नहीं मालूम कि इतनी सख़्तियों के बावजूद मुआविया के साथ कैसी सांठ-गांठ थी कि इसकी ख़यानतों और बिदअतों के मुक़ाबले में उमर ने कभी कुछ नहीं कहा जब कि हज़रत उमर के ज़माने में मुआविया के बरख़ास्त करने और उसकी जगह दूसरे आदमी को भेजने में कोई परेशानी नहीं थी लेकिन उमर उसके साथ इस क़दर रिआयत करते थे कि जिस से तमाम तहक़ीक़ करने वालों को हैरत और ताज्जुब होता है।

 

मुआविया का दीन व शरीयत के ख़िलाफ़ काम करना हज़रत उमर से पोशीदा नहीं था वह ख़ुद जब मुआविया को देखते थे तो कहते थे कि वह अरब का बादशाह है। (तारीख़ इब्ने असाकिर, जिल्द 59, पेज 114 व 115)

 

लेकिन अमली तौर पर उसे हुकूमते इस्लामी को छोड़ने और बादशाही निज़ाम को कायम करने में आज़ाद छोड़ रखा था और आज के शाम, फ़िलिस्तीन, उरदन और लेबनान जैसी बड़ी हुकूमते उसे सौंप रखी थी और इसको मुसलमानों के माल और नामूस पर मुसल्लत कर रखा था।

 

जिस वक़्त हज़रत उमर ने दमिश्क़ की सर जमीन पर क़दम रखा तो मुआविया को सैकड़ों लश्करों और सिपाहियों के दरमियान पाया लेकिन उससे सिर्फ़ एक सवाल किया और कोई दूसरी मुख़ालेफ़त और एतराज़ उस पर जाहिर नहीं किया। (अल इस्तिआब, जिल्द 1, पेज 253)

 

यहां तक कि जब उन्होंने सुना कि मुआविया ने अपने आप को अरब का पहला बादशाह क़रार दिया है तो ज़रा भी बुरे अहसास का इज़हार नहीं किया और जब उमर ने अबू सुफ़ियान से पैसों का भरा हुआ संदूक़ हासिल किया और उमर जानते थे कि यह पैसा अबू सुफ़ियान को उस के बेटे मुआविया ने बैतुलमाल में से दिया है इसके बावजूद भी उमर ने मुआविया की इस ख़यानत पर कोई ताज्जुब नहीं किया। (अल ग़दीर, जिल्द 6, पेज 164)

 

इस से भी ज़ियादा हैरत अंगेज़ बात यह है कि सुन्नी आलिम इब्ने अबिल हदीद मोतज़ली नहजुल बलाग़ा की शरह में नक्ल करते है कि हज़रत उमर मरते वक़्त सख़्त दर्द में मुब्तला थे और छः सहाबियों की कमेटी से यह कह रहे थे कि मेरे बाद इख़्तेलाफ़ और झगड़ा न करना और तफ़रक़े से परहेज़ करना क्योंकि अगर तुम आपस में लड़ोगे तो मुआविया मैदान में आ जाएगा और तुम से ख़िलाफ़त को छीन लेगा। (शरहे नहजुल बलाग़ा, इब्ने अबील हदीद मोतज़ली, जिल्द 1, पेज 184)

 

आख़िर हज़रत उमर ने मुआविया को इतना मौक़ा क्यों दिया कि वह बनी उमैया को शाम में आज़ाद छोड़ दे और फिर उसकी ताक़त से अहले शूरा (6 सहाबा की कमेटी) को डराएं!?

 

क्या ख़लीफ़ा का मक़सद यह था कि बनी उमैया को शाम में ताक़तवर करके बनी हाशिम पर नकेल डालें और जब भी बनी हाशिम की तरफ़ से कोई आवाज़ उठाई जाए तो उन्हें इस्लाम के पुराने दुश्मन बनी उमैया का सामना करना पड़े!?

 

जी हाँ! ऐसा ही है।

 

बहुत मुम्किन है मुआविया पर हज़रत उमर की मुहब्बतों का अस्ल राज़ यही हो!?

 

हक़ीक़त यह है कि ख़लीफ़ा ने शाम में बनी उमैया को हुकूमत में बैठाकर अपने आप को बनी हाशिम के (शायद) होने वाले हमलों से बचाया है और बनी उमैया को बनी हाशिम की नाराज़गी के तूफ़ान के सामने खड़ा कर दिया था। इसी वजह से उमर उनको यह मौक़ा दे रहे थे कि बनी उमैया एक बहुत ही ख़तरनाक और ज़ालिम हुकूमत को शाम में खड़ी करे। ऐसी हुकूमत कि जिस ने नबी (स) के नवासे इमाम हुसैन (अ.स) और उनके असहाब और घरवालों को करबला के मैदान में ज़ुल्म व सितम के साथ शहीद किया। ऐसा ज़ुल्म व सितम की जिसका इतिहास कभी मिटाया नहीं जा सकता और यह काम ख़लीफ़ा उस्मान के ज़माने में ख़ूब फैला।

 

यहां पर इस कलाम की गहराई और हक़ीक़त पता चलती है कि “हुसैन सक़ीफ़ा के दिन क़त्ल हो गए थे”

 

मरहूम मोहक़्क़िक़े इस्फ़ाहानी ने अपने शेर में इस बात को बहुत वाज़ेह कर दिया। जिसका तर्जुमा यह हैः "जिस वक़्त हुरमला तीर चला रहा था तो हुरमला तीर नहीं चला रहा था बल्कि वह शख़्स तीर चला रहा था कि जिस ने हुरमला के लिए यह मौक़ा फ़राहम किया था। यह वह तीर था जो सक़ीफ़ा की तरफ़ से चला था और उसकी कमान ख़लीफ़ा के हाथ में थी। (दीवाने अशआर मरहूम मोहक़्क़िक़े इस्फ़ाहानी / किताबे आशूरा, पेज 123)

 

*🤲 अल्लाह हुम्मा अज्जिल ले वलियेकल फ़रज...*

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